जय श्री राम
!! जय श्री राम
!! जय श्री राम
!!
श्री हनुमान चालीसा ।
॥दोहा॥
श्रीगुरु चरन सरोज
रज निज मनु
मुकुरु सुधारि ।
बरनउँ रघुबर बिमल
जसु जो दायकु
फल चारि ॥
बुद्धिहीन तनु जानिके
सुमिरौं पवन-कुमार
।
बल बुधि बिद्या
देहु मोहिं हरहु
कलेस बिकार ॥
॥चौपाई॥
जय हनुमान ज्ञान
गुन सागर ।
जय कपीस तिहुँ
लोक उजागर ॥१॥
राम दूत अतुलित
बल धामा ।
अञ्जनि-पुत्र पवनसुत नामा
॥२॥
महाबीर बिक्रम बजरङ्गी ।
कुमति निवार सुमति
के सङ्गी ॥३॥
कञ्चन बरन बिराज
सुबेसा ।
कानन कुण्डल कुञ्चित
केसा ॥४॥
हाथ बज्र औ
ध्वजा बिराजै ।
काँधे मूँज जनेउ
साजै ॥५॥
सङ्कर सुवन केसरीनन्दन
।
तेज प्रताप महा
जग बन्दन ॥६॥
बिद्यावान गुनी अति
चातुर ।
राम काज करिबे
को आतुर ॥७॥
प्रभु चरित्र सुनिबे
को रसिया ।
राम लखन सीता
मन बसिया ॥८॥
सूक्ष्म रूप धरि
सियहिं दिखावा ।
बिकट रूप धरि
लङ्क जरावा ॥९॥
भीम रूप धरि
असुर सँहारे ।
रामचन्द्र के काज
सँवारे ॥१०॥
लाय सञ्जीवन लखन
जियाये ।
श्रीरघुबीर हरषि उर
लाये ॥११॥
रघुपति कीह्नी बहुत बड़ाई
।
तुम मम प्रिय
भरतहि सम भाई
॥१२॥
सहस बदन तुह्मारो
जस गावैं ।
अस कहि श्रीपति
कण्ठ लगावैं ॥१३॥
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा ।
नारद सारद सहित
अहीसा ॥१४॥
जम कुबेर दिगपाल
जहाँ ते ।
कबि कोबिद कहि
सके कहाँ ते
॥१५॥
तुम उपकार सुग्रीवहिं
कीह्ना ।
राम मिलाय राज
पद दीह्ना ॥१६॥
तुह्मरो मन्त्र बिभीषन माना
।
लङ्केस्वर भए सब
जग जाना ॥१७॥
जुग सहस्र जोजन
पर भानु ।
लील्यो ताहि मधुर
फल जानू ॥१८॥
प्रभु मुद्रिका मेलि
मुख माहीं ।
जलधि लाँघि गये
अचरज नाहीं ॥१९॥
दुर्गम काज जगत
के जेते ।
सुगम अनुग्रह तुह्मरे
तेते ॥२०॥
राम दुआरे तुम
रखवारे ।
होत न आज्ञा
बिनु पैसारे ॥२१॥
सब सुख लहै
तुह्मारी सरना ।
तुम रच्छक काहू
को डर ना
॥२२॥
आपन तेज सह्मारो
आपै ।
तीनों लोक हाँक
तें काँपै ॥२३॥
भूत पिसाच निकट
नहिं आवै ।
महाबीर जब नाम
सुनावै ॥२४॥
नासै रोग हरै
सब पीरा ।
जपत निरन्तर हनुमत
बीरा ॥२५॥
सङ्कट तें हनुमान
छुड़ावै ।
मन क्रम बचन
ध्यान जो लावै
॥२६॥
सब पर राम
तपस्वी राजा ।
तिन के काज
सकल तुम साजा
॥२७॥
और मनोरथ जो
कोई लावै ।
सोई अमित जीवन
फल पावै ॥२८॥
चारों जुग परताप
तुह्मारा ।
है परसिद्ध जगत
उजियारा ॥२९॥
साधु सन्त के
तुम रखवारे ।
असुर निकन्दन राम
दुलारे ॥३०॥
अष्टसिद्धि नौ निधि
के दाता ।
अस बर दीन
जानकी माता ॥३१॥
राम रसायन तुह्मरे
पासा ।
सदा रहो रघुपति
के दासा ॥३२॥
तुह्मरे भजन राम
को पावै ।
जनम जनम के
दुख बिसरावै ॥३३॥
अन्त काल रघुबर
पुर जाई ।
जहाँ जन्म हरिभक्त
कहाई ॥३४॥
और देवता चित्त
न धरई ।
हनुमत सेइ सर्ब
सुख करई ॥३५॥
सङ्कट कटै मिटै
सब पीरा ।
जो सुमिरै हनुमत
बलबीरा ॥३६॥
जय जय जय
हनुमान गोसाईं ।
कृपा करहु गुरुदेव
की नाईं ॥३७॥
जो सत बार
पाठ कर कोई
।
छूटहि बन्दि महा
सुख होई ॥३८॥
जो यह पढ़ै
हनुमान चालीसा ।
होय सिद्धि साखी
गौरीसा ॥३९॥
तुलसीदास सदा हरि
चेरा ।
कीजै नाथ हृदय
महँ डेरा ॥४०॥
॥दोहा॥
पवनतनय सङ्कट हरन मङ्गल
मूरति रूप ।
राम लखन सीता
सहित हृदय बसहु
सुर भूप ॥
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